सितंबर 06, 2012

मारा रे ...

आबिद को शेरो शायरी का भूत चढ़ा.

उसने एक दो हाहाकारी शेर लिख डाले इधर उधर से माल चपका के और तय किया की जुम्मे की नमाज के लिए जब सब साथी इकट्ठे होंगे तो वहीँ अचानक इनको सुनायेगा ...

जुम्मा आया, आबिद दोपहर में नमाज के लिए गया और सब साथी दिखते ही वो इमोशनल और रोनी सूरत बनाने की कोशिश करता हुआ बोला - मारा रे ...

ये सुनते ही रिलिजन ऑफ़ पीस (?) के शांतिदूत बाहर निकल के दंगा करने लगे, दुकानों को शांतिपूर्वक तरीके से लूट के आग लगा दी, राहगीरों को सद्भावना के साथ लूट के चाक़ू और डंडे मारे, वाहनों को मासूमियत के साथ आग के हवाले किया और महिलाओं के साथ आदर के साथ जितना संभव बन पडा अभद्रता और बलात्कार किये.

उधर आबिद? उसको "मारा रे ..." के आगे किसी ने सुना ही नहीं, फिर भी वो अकेला बैठा बैठा बोला - "मारा रे ... तेरी आँखों ने मुझे मारा रे "