नवंबर 26, 2011

एक गांव की कहानी - भाग दो


भाग एक से आगे -


गांव वाले अपना सा मुंह ले कर लौट आये | सब समझ रहे थे कि बहुत गलत हुआ है पर कोई भी खुल कर विरोध नहीं कर रहा था | बुजुर्ग बताते हैं कि गांव वाले अक्सर सर झुकाये ही रहते थे | कुछ अपने सर झुकाने का ठीकरा भाग्य पर फोड कर खुद को ग्लानि से मुक्त कर लेते थे, तो कुछ जो हो रहा है उस पर बेबसी जताकर, कि हम क्या कर सकते हैं |


वहीं कुछ इतने समझदार थे कि जब से उन्होंने खुद के लिये पाया कि वो सर झुका के चल रहे हैं, तो उन्होंने कमर भी झुका के चलना शुरू कर दिया और सर झुका के चलने वालों को लानत भेजने लगे | और इस तरह से ना केवल खुद को धोखा दिया वरन प्रधान और ठकुराइन के खास लोगों की कॄपा भी प्राप्त कर ली | बताते हैं कि इनमें ज्यादातर लोग डुगडुगी वाले थे, जो गांव वालों को इतना भरमाते थे कि कभी कभी खुद ही भूल जाते थे कि उन्होंने इसी गांव में जन्म लिया है, और इसी के विनाश के बीज बो रहे हैं


खैर बारिश हुई और जैसा हमेशा होता आया था अच्छी फ़सल होते ही खरीद भाव जमीन पर आ गये |


एक युवा किसान जिसे ये गोरखधंधा कुछ कुछ समझ में आने लगा था, ने जाकर प्रधान के खास और खेती बाडी में टांग अडाने वाले बंदे को रूई की तरह धुनने की असफ़ल कोशिश की | कोई ना कोई युवा ऐसी असफ़ल कोशिश कुछेक सालों में अवश्य ही करता था और तब गांव वाले कुछ देर के लिये अपना झुका हुआ सर सीधा कर लेते थे, भले ही कुछ क्षणों के लिये ही |


भूतकाल में कुछ महाप्रतिभाशाली प्रधानों के समय ही भांप लिया गया था कि आने वाले समय में हमारे चेले चपाटियों में लालच और चोरी करके खाने पर नियंत्रण नहीं रहेगा इसलिये गांव के पहरेदारों की एक अलग टोली बनाई गई थी, जो प्रधान और उनके बंदों और ठकुराइन के कुनबे की चौबीस घंटे रखवाली या सुरक्षा करते थे |


किनसे? अरे गांव वालों से और किनसे? बाहर के गांव वाले इधर आकर इनको कुछ नुकसान पहुंचायें इसके अवसर नगण्य थे, हां पर अपनी रात दिन की कुनबे समेत मेहनत से इन लोगों ने चोरी कर कर के ऐसा माहौल बना लिया था कि बिना पहरेदारों के मिलने पर गांव वाले तुरंत इनका क्रिया कर्म कर डालें |

पर सर झुका के चलने वाले लोग भला इस बात पर क्यों गौर करते कि, इनको सुरक्षा चाहिये का ख्याली पुलाव उनके खून पसीने की मेहनत से पकाये जाते थे

उधर कुछ दिन बाद श्वेतवस्त्रधारी माणूस ने एक बार फिर चौपाल का चक्कर लगाया, गांव वाले बेचारे फिर डुगडुगी वालों और जो माणूस को लेकर आये थे, के झांसे में आ गये और मानने लगे कि अब बस हमारे दु:ख दर्द मानों खत्म होने ही वाले हैं |

लोग चौपाल पर इकट्ठे हो गये अपने अपने जरूरी‌ काम छोडकर | जिनसे जरूरी काम छोडे नहीं गये वो उन कामों को शाम ढले चौपाल के आस पास ही निपटाने लगे | इन सब अंधभक्तों का जयजयकार दूसरे गांवों तक भी सुनाई देता था, पर दूसरे गांव के लोगों के चेहरे पर ना जाने क्यों इस ध्वनि को सुन एक व्यंगात्मक मुस्कान आ जाती थी

एक बार फिर माणूस चौपाल पर गाने गा कर अपने घर लौट गये पर ना जाने किसने किसको कैसी पट्टी पढाई कि गांव वाले खुश हो कर नाचने लगे कि अब हमारे सब दु:ख दर्द दूर हो गये | हालांकि कुछ लोग ऐसे भी थे जो इस बात से सहमत नहीं थे, पर एक तो गांव का सर झुका के रहने का रिवाज और दूसरे नक्कारखाने में तूती कौन बने सोच कर चुप ही रहे |

कमर झुका के चलने वालों ने जश्न मनाने की अगुआई की और जश्न मनाते मनाते भी सर झुका के चलने वालों और सर सीधा रख के चलने वालों को लानत भेजने से नहीं चूके |

ठकुराईन दूर गांव में बैठे बैठे ये सब सुन कर मुस्कुराती रहती थी | वो कहां आती थीं कहां जाती‌ थीं या तो वो खुद जानती थीं या ऊपरवाला | प्रधान ने एक दो बार जानने की‌ हालांकि कोशिश की, पर उसकी‌ ये कोशिश ठकुराइन के खास चमचों द्वारा पकड ली‌ गई और प्रधान को झिडकी सुनने को मिली |

सूरज बाबा डूबे, उगे, डूबे, उगे, कुछ दिन बीतते बीतते गांव वालों में ठगे जाने का अहसास घर करने लगा |

उधर गेरुये वस्त्र पहने फ़कीर से हमदर्दी रखने वालों से जब उस रात का रहस्य पूछा गया तो वो इधर उधर देख कर कि कोई सुन तो नहीं रहा है, धीरे से बोले कि प्रधान के नींद लेने के बाद, फ़कीर को उस रात बाकी लोगों के साथ खूबा मारा गया, फ़कीर के पास जो लोग हरदम दिखाई देते थे उनमें से कई के हाथ पैर तोड दिये गये और कोशिश की‌ गई कि ये जिंदा बचे तो एक सबक हमेशा याद रख के जियें और अगर मर जाये तो सबसे अच्छा, बाकी लोग इन लोगों का अनुसरण करने और अपना सर सीधा कर के चलने से पहले सौ बार सोचेंगे |


पर आखिर फ़कीर को मारा क्यों? पैदायशी बुद्धू है क्या? जिसने पूछा उसे सुनने को मिला | कोई चोर कभी मानेगा कि मैं चोर हूं ? वो कभी अपने आप अपना चोरी किया माल लौटायेगा ?


फ़कीर की सोच ही गलत थी, ना जाने कैसी संगत में रहता है फ़कीर, एक क्षुब्ध युवा बडबडाया |


खैर फ़कीर की और जो लोग बेरहमी से मारे पीटे गये थे, उनकी चोटें समय के साथ ठीक हो गईं सिवाय उनके जो इस अमानवीय राक्षसी हमले में मारे गये | हरदम नीती सिद्धांतों की दुहाई देने वाले प्रधान और उनके लोगों ने इस पर ऐसी चुप्पी साधी कि मानों मातॄ-पितॄ शोक के कारण जबान नहीं खुल रही हो | और अगर वो बोलते भी तो क्या? अपने ही आकाओं के खिलाफ़ बोलने वाली आत्मा तो ना जाने वो कब बेच चुके थे |


पर फ़कीर ने नये जोश के साथ सोते हुए और सर झुकाये गांव वालों को जगाने के लिये गांव भर में जा जाकर लोगों को समझाना फिर से शुरू कर दिया, जाने ये फ़कीर क्यों नहीं समझा कि बिना खुद की डुगडुगी बजाये या बिना इन प्राणियों को बोटी खिलाये सब गांव वालों तक बात पहुंचाना लगभग असंभव सा था |


इस बीच गांव में ना जाने कितनी चोरियां हुई, कभी खेल करवाने के नाम पर, कभी खुदाई करने के नाम पर, कभी चुपचाप, कभी रात में और कभी दिन दहाडे, और कुछेक गांव वालों को छोडकर शायद ही किसी के कान पर जूं रेंगी | अगर रेंगी भी‌ होगी तो शायद गौर नहीं किया होगा क्योंकि ठीक इसी समय सब लोग या तो किसी को बदनाम होते देख रहे थे या किसी बदनाम को नाम कमाते |

कहानी काफ़ी सीरियस है, हालांकि इसे व्यंग में पिरोने की मैं जितनी कोशिश कर सकता था मैंने की है, सुझाव, आलोचना या कोई सी भी लोचना हो (केशलोचना को छोडकर) सबका तहे दिल से स्वागत है |
- नरे

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