चलिये इस आम आदमी को छोड के आगे देखते हैं -
शक संवत को 'फ़ोलो' करने वाले महान सभ्यता के वंशजों के इसपे आधारित पंचांग आदि को शक की निगाह से देखने के कारण तिथी वगैरह का तो पता नहीं पर हां कैलेंडर के हिसाब से कोई सन् २०१०-२०२० के आसपास का समय रहा होगा।
भारत काफ़ी प्रगति कर चुका था। सरकारें सुनिश्चित कर चुकी थीं कि चार्वाक दर्शन को आगे बढाया जाये, इसके लिये उनके थिंक टैंकों ने दिन रात कमेटियों पे कमेटियां बना कर (अरे! दिन रात का गलत प्रयोग हो गया, अभी भूल सुधार करता हूं), और दिन रात टीए डीए उठा कर नई नई स्कीमें बनाई थीं जिनके नाम के आगे और पीछे किसी ना किसी तरह से 'गांधी' लगाकर सुनिश्चित किया गया कि नाम सुनते ही पता चल जाये कि ये योजनायें और स्कीमें कोई काम की नहीं हैं।
इनमें से कुछ स्कीमें तो आपको घर बैठे रोजगार देती थीं, बस आपको एक सरकारी कागज पे अपना अंगूठा या हस्ताक्षर करने होते थे और मिलने वाली रकम का कुछ हिस्सा बांटना पडता था, मिल बांट के खाने का ऐसा अद्भुत शिक्षण प्राप्त करने के लिये कई विदेशी भी दौरा कर चुके थे पर उनको दौरे में ये सब देख के दौरों के सिवाय कुछ भी नहीं मिला। बेचारे, च च च । और हां आपने घर बैठे रोजगार प्राप्त कर लिया तो इसके बाद कुछ खाना पीना भी है कि नहीं? इसके लिये एक अलग स्कीम थी जो आपके खाना पीने का बंदोबस्त करने के लिये लाई गई थी और आपको घर बैठे (ठीक पहले वाली स्कीम की तरह ही) खाना पीना दिलाती थी। क्या? मिल बांट के? हां वो तो सारी योजनाओं का अभिन्न अंग ही था, इसके बिना कैसा विश्वबंधुत्व?
सो लोगों के पास खूब समय हुआ करता था और वो इस समय को अपने अपने तरीके ठिकाने लगाया करते थे, कुछ लोग जो अभी तक 'सोशल' नहीं हुए थे, कई लोगों के साथ गपबाजी करते हुए, चौपाल पे या कहीं भी दिनकटी करते थे हांडी वगैरह लगा के और जो 'सोशल' हो गये थे वो अपने कमरे में अकेले बैठ के 'सोशल साइट्स' पे कई लोगों के साथ गपबाजी करते हुए खुद को प्रोफ़ेशनल 'समझदार' दिखाने के तनाव भरे काम का जितनी देर हो सके निर्वहन करते थे । हां ये दूसरे वाले 'सोशल' लोगों को इन योजनाओं की पूरी जानकारी नहीं होती थी, पर उनको लगता था कि मानों उन्होनें इन पर और विश्व के किसी भी मुद्दे पर ज्ञान का प्रचार प्रसार करने का टेंडर छुडा रखा है और साल बीतते बीतते टारगेट पूरा करना है।
बाकी? बाकी शास्त्रीय संगीत सुनते थॆ सीरियल्स के बैकग्राउंड में आने वाले, सूअर की चर्बी से बनी क्रीम लगा के गोरे होते थे और दिन भर एड्स (मेरा मतलब एडवरटाइजमेंट्स) देखते थे, जिनमें से हरेक एड का आश्चर्यजनक तरीके से एक ही संदेश होता था कि 'लडकी पट जायेगी', हमारी कंपनी की चड्डी - पहनो लडकी पट जायेगी, हमारी कंपनी की शेविंग क्रीम काम में लो - लडकी पट जायेगी, हमारी चिप्स खाओ - लडकी पट जायेगी, कुल मिला के बडा लोकतांत्रिक माहौल था, बस हमारे ब्रांड का प्रोडक्ट काम में लो - लडकी पट जायेगी, अरे अपने आप आपके पास आयेगी।
मानो ये एड जो लोग दिन भर धूप तक ना देखने के बाद भी सरकारी स्कीमों का फ़ायदा ना उठा पा रहे हों क्योंकि उनकी आमदनी सरकारी 32 रुपये की रेखा से सैकडॊं या हजारों गुना ज्यादा है, उनको जीवन का ध्येय दे रहे हों।
दूसरी तरफ़ इन सब से अनजान किसानों का लागत मूल्य बढता जा रहा था और किसान की आत्महत्या को अब मीडिया खबर तक नहीं समझता था। प्राकॄतिक संसाधन बेच के खाये जा रहे थे, आतंकियों के लिये सरकार के मंत्री बोलते थे कि हमने गुपचुप उनका हाथ थाम रखा है और चुनाव से पहले आम आदमी के पैसे से इसी मीडिया में बेशर्म सरकार और जनता को भिखारी बोलने वाले, थोपे गये सरकारी राजपरिवार के लिये, ना जाने किसके निर्माण के गाने बजाये जाते थे !!
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