सब गुत्थम गुत्था हो रखे थे ।
इसे हमारे दायरे में लाओ, हमें इसके दायरे से निकालो, अरे इसमें दलित तो है ही नहीं, अरे मुस्लिम वर्ग के प्रतिनिधी कम हैं, हद है ठाकुर इतने कम? अरे पिछडा वर्ग छूट गया, ये क्या है? अगडी जाति वालों ने किसका बटेर चुराया है हम 50% से कम पर नहीं मानेंगे ...
कुल मिला कर सब चिल्ला चिल्ला कर बता रहे थे कि वो किस तरीके की राजनीती के कांधे चढकर ऊपर उठे हैं। ये बात अलग थी कि ये अब इतने ऊपर उठ गये थे कि इनको ऊपर उठाने वाले कांधे ही चार कांधों के मोहताज होने वाले थे।
कन्फ़्यूजियाइये मत, बात लोकपाल की हो रही थी और नक्कारखाने को मूर्त रूप देने वाले लोग और कोई नहीं आदरणीय (ये मैं सिर्फ़ विशेषाधिकार हनन का नोटिस ना मिले इसलिये लगा रहा हूं) सांसद थे ।
सालों (मन तो कर रहा है गाली देने का पर यहां सालों = years है) साल तडपा तडपा कर आखिर लोकपाल आखिर आ ही गया। पर इस दायरे दायरे के खेल में हुआ ये कि भ्रष्टाचार लोकपाल के दायरे से बाहर था और लोकपाल लोक के।
भले ही खुद के दांत नकली हों और नख कागज से रगड खा के टूट जाते हों पर लोकपाल नखदंत विहीन है या नहीं इसे सिद्ध करने में लोग महंगाई भूल कर जुटे थे, मानों उनके, जो वो सिद्ध करना चाहते हैं वो सिद्ध करते ही, सरकार अगले पद्म सम्मान के लिये अपने चाटुकारों या खबरियों और उंगलीबाजों की जगह उनको ही चुन लेगी।
अब परेशानी लोकपाल चुनने की थी। सर्वदलीय बैठकों में (वो जो दिन में होती हैं वो नहीं, वो जो छिप कर होती हैं वो) तय किया गया कि तुम्हारे राज्यों में हमारे लोकपाल और हमारे राज्यों में तुम्हारे लोकपाल।
जनता खुश, जनता खुश होने का कोई मौका छोडती है क्या? लोकपाल ने काम करना शुरू किया और पता लगा कि पहले एंटी करप्शन वाले भी इससे अच्छा काम करते थे।
कुछ लोग अभी भी आस लगाये बैठे हैं कि भारत से एक दिन भ्रष्टाचार खत्म होगा।
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